Tuesday, December 15, 2009

माहताब

माहताब
आज  चले  हैं वो फिर,  गुलशन को   मेहकानें,    
बहारों का इस्तक़बाल करो, और छेड़ो तराने


हम  उनकी अदाओं   को   देख,  दंग रह गये,
क्या नज़ारा  था,  नूर   था,  लगे मुँह छिपाने

हर कोई उसे अब,  माहताब   कहने लगा है,
बांध   लिया है  कशिश  में,  सब  हुए दिवाने


बारगाह   में  वीराने,   ज़ुल्मतों  में  जा छिपे,
तन्हाईयों को भी न मिले, ऐसे तन्हा ज़माने

अब शोर-ए-गिरयां   की,  बात  न   किया  करें,
शबे-खामोश में, दुनियाँ लगी है क़मर हिलाने


जहाँ रानाई बिछी हो, उसकी अदा हरी-भरी हो,
जैसे जन्नत चली आयी, "रत्ती" के होश उड़ानें

शब्दार्थ 
इस्तक़बाल = स्वागत, नूर = प्रकाश, माहताब = चाँद,
बारगाह = दरबार, ज़ुल्मत = अन्धेरा,
शोर-ए-गिरयां = रोने धोने का शोर, शब-ए-खामोश =  चुपरात,
रानाई = सुंदरता,

Monday, November 23, 2009

परायाधन

परायाधन - यह एक शब्द अपना अर्थ खुद बता रहा है,
लड़कियाँ परायाधन हैं, तो हम शुरू से ही मान कर चलते है,
जो चीज़ हमारी है ही नहीं, उस पर समय क्यों बर्बाद करें,
आदमी की ये हिंसक प्रवृति, बाहर नहीं मन के भीतर रहती है,
और समय-समय पर वह कटोतियाँ करता है,
चंद काग़ज़ के टुकडे़ बचा लेता है,
मन में हिंसक वारदातों का क्रम जारी रहता है,
भेद-भाव के कीडे़,
लड़की के जन्म से ही खोपड़ी में मंडराने लगते हैं,
योग्य होनहार अयोग्य बनी,
सारे मोहल्ले में गंवार ही रही,
अशिक्षित अंगूठा छाप रही,
दो आँखों में से एक आँख में किरकिरि जैसी,
किसी को अपने अधिकार से वंचित रखना
ऐसे ही है जैसे किसी स्वतंत्र पंछी के पंख काटना,
उसकी नीले गगन की उड़ान अधूरा स्वप्न बन कर रह जायेगी
आखिर बर्तन ही तो मांजने हैं लड़कियों को,
उनके लिए जो भी किया आधेमन से,
उत्थान की बातें करेनवाला समाज
आँखवाला अंधा होकर, टुकूर-टुकूर
उस बेला की बाट जोहता है,
कब इसके हाथ पीले होंगे, मन का बोझ कम होगा,
इतना ही नहीं, क्रुर मानव तो जन्म से पहले ही लड़कियों को
गोलोक में पहुंचाने की योजनाओं को
क्रियान्वित करने के लिये तत्पर दिखा,
कमअक्ल से बनी पतवार, भेद-भाव से भरी नाव को
कैसे पार लगायेगी?
माना के परायेधन पर हमारा अधिकार नहीं है,
लेकिन उसकी सुरक्षा के लिये हम कटीबद्ध जीव,
माँ-बाप विमुखता, संकीर्णता और सब लोग
नरक के द्वार खटखटाने में लगे हुए हैं
तो यमराज ने देखा और कहा ..... तथास्तु .....

Thursday, November 12, 2009

मेहरबां

मेहरबां
अगर मुट्ठी में  है वो   आसमां,
कोई न   कहेगा  तुमको  नातवाँ



शहंशाह  के  जैसी  होगी  जिंदगी,
हर   लम्हा  मस्ती  से  भरा  जवां



हर शख्स की जुबां पे रहेगा  नाम,
तेरा चर्चा होगा रोज़ हर सू बयां



चमक-दमक में   लिपटी  ज़ीस्त,
काले   अँधेरे  फिर  ठहरेंगे  कहाँ



हर शै क़दमों में हाज़िर पल में,
मयस्सर  हुआ  है   बिहिश्त   यहाँ 



रब ने बनाया हो जिसका नसीबा,
"रत्ती"  कौन  रोकेगा  सब मेहरबां     



 शब्दार्थ
नातवाँ - कमज़ोर, हर सू = चारों तरफ
ज़ीस्त = जीवन, मयस्सर = उपलब्ध,
बिहिश्त = स्वर्ग  

Friday, October 2, 2009

रूठना

रूठना

ज़िन्दगी तूने तो फक़त रूठना ही सीखा,
मेरे चैन को पल-पल लूटना ही सीखा


दिल तो नाज़ुक है शीशे  की तरह से,
तल्ख़ ज़ुबां का असर टूटना ही सीखा


मेरी गुस्ताखीयों को तौले वो तराज़ू में,
सवाब के  पलड़े ने न झूकना ही सीखा


काली रात ने डराया नींद से जगाया,
वो तो सूरज था उसने उगना ही सीखा


वक़्त के मुलायम हाथ सख्त हुए "रत्ती"
मेरी ख्वाहिशों का गला घोटना ही सीखा

Monday, September 28, 2009

रावण

रावण


आज अख़बार में एक ख़बर पढ़ी
रावण का कद छोटा हो गया है ।
मैं पढ़ कर थोड़ा हैरान हुआ
महंगाई ने भले ही रावण का कद
छोटा कर दिया हो
लेकिन रावणों के ग़लत मंसूबों पर
पानी फेरना अत्यंत कठिन काम है ।
रावण आज भी हमारे हृदय में बसता है ।
राम को दिल में रखने की जगह नहीं है ।
रावण के दस सिर हैं
और दस सिरों में से अनेक प्रकार के
विषय-विकार जन्म लेते हैं ।
आज के आधुनिक युग में,
विभीषण भी बहुत हैं
और रावण भी बहुत हैं
देश और धर्म की सेवा करनेवाले
विरले ही नज़र आते हैं ।
रावण वो विशाल वृक्ष है,
जिसकी जड़ों पर हर इंसान
अपने स्वार्थ का पानी डाल कर,
उसको पुष्टि देता है, ताक़त देता है ।
आज हम सब लोग रावण के हाथ
मज़बूत कर रहे हैं ।
कौन कहता है के रावण मर गया है,
उसका कद छोटा हो गया है ।
आप अपने इर्द-गिर्द देखेंगे तो
राम के भेस में रावण नज़र आयेंगे,
हम सभी रावण की ही भक्ति
रोज़ करते हैं ।
उसकी हर बुराई की नकल करते हैं,
उस पर अमल करते हैं ।
हमारे देश भारत में
प्रतिदिन सीता की इज्ज़त नीलाम होती है
और लोग सिर्फ़ तमाशा देखते हैं ।
आप कह सकते हैं, युग बदला है
लेकिन हमारा स्वभाव, हमारी बुरी आदतें
नहीं बदली ।
हमारे विषय-विकारों का दायरा,
रावण के कद से कई लाख गुणा बड़ा है ।
रावण हमारी प्रेरणा का साधन बन गया है ।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वचन
किताबों तक ही सीमित रह गये हैं
और हम सिर्फ़ रामराज की कल्पना ही
कर सकते हैं ।
आप ही बताईये रावण के भक्त
राम की भक्ति कैसे कर सकते हैं?
मन में राम को बसा लो या रावण को,
क्योंकि मन तो हमारे पास एक ही है ।
गुरूग्रंथ साहिब की गुरूबाणी में लिखा है
"एक लख पूत सवा लख नाती
तिस रावण के घर दीया न बाती"
तो साथीयो कहने का अर्थ यह है
बुराई पर अच्छाई कि विजय अवश्य होगी ।
ये बात आप स्वर्ण अक्षरों में लिख लो ।

Sunday, September 6, 2009

हयात

हयात
थोड़ा-थोड़ा जीता हूँ ज़रा-ज़रा मरता हूँ,
ग़मों की आग में सुलगता हूँ जलता हूँ

ख़ुश्क अरमां हैं दम-खम भी नहीं बचा,
बेसाख्ता मिज़ाज न बिगड़े संभलता हूँ

हयात में तंदखू-ओ-बरहम भी मिले,
उलझ न जाऊँ किसी से मैं डरता हूँ

ख़ुद-परस्ती का शोर-गुल कानों में पड़ा,
कशमकश में बिना वजह उलझता हूँ

कहाँ तलक परेशानियां कोई सहन करे,
इसीलिये हर क़दम फूँक के धरता हूँ

तमाम शब एक तदबीर की तलाश रही,
बस जाहिलों के मानिन्द हाथ मलता हूँ

कुछ पल उपरवाले को याद करूँ लेकिन,
एक लम्हा भी ख़ुदा की इबादत न करता हूँ

मैं वफ़ा के कसीदे किसको सुनाऊँ "रत्ती"
दुनियाँ अपनी राह मैं अपनी राह चलता हूँ

शब्दार्थ

हयात - जीवन, बेसाख्ता - अचानक,
तंदखू - तेज़, बरहम - अप्रसन्न



Friday, September 4, 2009

अच्छा नहीं


अच्छा नहीं

मुझे बेवफा न समझो, ये अच्छा नहीं

सच तो आयेगा सामने, छुप सकता नहीं

मुझे बेवफा न समझो .....


माना के हमसे कोई, ख़ता हुई होगी,

ज़रा सी चोट से कोई, मर सकता नहीं

मुझे बेवफा न समझो .....


तुम मेरे हमसफर हो, मेरा भी तो हक़ है,

तुमको मैं छेड़ दूँ, तो कुछ घटता नहीं

मुझे बेवफा न समझो .....


अगर ऐसी बात है तो, हम चुप ही बेहतर,

ये नोक-झोंक, गिला-शिकवा, अच्छा नहीं

मुझे बेवफा न समझो .....


छोटी सी बात की, इतनी बड़ी सज़ा,

संगदिल भी रोता एक दिन, बचता नहीं

मुझे बेवफा न समझो .....


यक़ीं कर लो हमारा, मुहब्बत है तुमसे,

क्या करे "रत्ती", बिना बोले रह सकता नहीं

मुझे बेवफा न समझो .....

Wednesday, August 19, 2009

बेरंग

बेरंग
इस रंगीन दुनियाँ में,ज़िन्दगी बेरंग है,

ये कैसा अजूबा है मौला,हर शख्स तंग है

मायुसी है के बस,सर उठाने नहीं देती,

क़दम-क़दम पे लड़ाई,हर काम में जंग है

हुस्न और दौलतवालों को,दावत के पैग़ाम मिले,

सिमटा दायरा प्यार का,अपनी-अपनी पसंद है

फौलाद की बेड़ियाँ टूट जायेंगी,फ़रेब की नहीं,

अपनें ही जाल में आदमी,हो रहा नज़रबंद है

जद्दोजहद में इंसानियत,खो गयी है कहीं,

हड्डियों के ढांचे की, आवाज़ बुलन्द है

ना सुननें की आदत नहीं,हुक्म की तामील हो,

जी हज़ूरी करनेवाला,खिलौना ही पसंद है

मदरसे में पढे सबक,कुछ याद हैं कुछ भूल गये,

दो और दो पाँच करके,बनें दौलतमन्द है

सियासतदाँ ने कहा,पाँच साल बाद मिलेंगे "रत्ती"

तुम जियो या मरो,अपन तो अमन पसंद है


Tuesday, August 18, 2009

नेक दिल


नेक दिल
वो शमां जली के न जली,
पर रात ढली
अन्धेरों में सिमटी,
यादों की गली
मैंने लाख मनाया उसे,
मेरी एक न चली
ज़ुबां तल्ख़ तो कभी,
मिसरी की डली
जैसी भी है "रत्ती"
वो नेकदिल भली

Monday, July 27, 2009

दूरियाँ

दूरियाँ

अपनी हथेली पर मेरा नाम लिखा,
फिर मिटा दिया
बोल मेरे साथी तूने ऐसा,
क्यों किया
है नफ़रत की दीवार दिल में,
गिरा दे उसे
सरे ज़माने को बता दे,
प्यार के सच्चे किस्से
भले दुनियाँ की दौलत दे दी,
प्यार न दिया तो क्या दिया
बोल मेरे साथी तूने ऐसा,
क्यों किया
अपनी हथेली पर मेरा नाम लिखा,
फिर मिटा दिया .....

मुझे गरज़ती, बरसती, काली,
सयाह रातें पसंद नहीं
तन्हाई में डर लगता है,
क्या तुम्हें लगता नहीं
बोल मेरे साथी तूने ऐसा,
क्यों किया
अपनी हथेली पर मेरा नाम लिखा,
फिर मिटा दिया .....

Sunday, July 19, 2009

एक सच

एक सच
क्षण में जनम हो रहा
और विलय भी हो रहा
आस-निरास पर टिका

ये जीवन भी रो रहा
आम के बदले तू धरा में

क्यों बबूल बो रहा
पीड़ा से भरे मन को

आंसुओं से धो रहा
कुंभकरण की भांति मनुष्य

है आज भी सो रहा
बहुमूल्य सभ्यता,प्रथा,

संस्कृति भी खो रहा .....


कब तलक



कब तलक

यादों के सहारे बैठे रहेंगे कब तलक,

आंखें थक गयी खुले न मेरी पलक

मेहरबां तुम्हें याद नहीं अपने वादे,

सपनों में ही सही दिखा दो एक झलक

एक चान्द को दिल में बसाया था मैंने,

वो चान्द जा बैठा बहोत दूर फलक

जो जाम आंखों से पिलाये वो थे रसीले,

"रत्ती" आज पीला दो मेरा सूखा है हलक

Saturday, July 18, 2009

हिंसा



हिंसा

वफ़ा-जफ़ा की बातें दोहरायी गयी,

नज़रें लाल सुर्ख फिर लड़ायी गयी

क़यामत को बुलाने का इरादा है उनका,

जिस्मों पे ज़ोर से तलवार लहरायी गयी

वो क्या जानें लहू बेशकीमती है,

बहा दी नदियाँ साँसें रूकवायी गयी

लाशों की सेज पे चले हंस्ते हुए,

गली-गली खुशीयाँ मनायी गयी

कटे जिस्म के टुकड़े पूछते हैं सबसे,

क्यों नफ़रत की आग लगायी गयी

किसका गुनाह कितना बड़ा मालूम नहीं,

बस तश्दुद्द कू-ब-कू फैलायी गयी

ज़मीं के बाशिंदों ने सीखा अब तलक,

एक मज़हब की दिवार बनायी गयी

कहीं छोड़ आये प्यारे हबीब रहम को,

बड़े पीरों की संगत भी ठुकरायी गयी

हादिसों से दिल की दिवारें काँपती हैं "रत्ती",

मगर किसी की जां न बचायी गयी


Wednesday, June 3, 2009

दिनचर्या

दिनचर्या
चिड़ियों की चूँ-चूँ ने आभास कराया, भोर हो गयी है। भास्कर आँगन में आ गया है, अरे आज फिर देर हो गयी जैसे-तैसे स्नान करके तैयार हो जलपान ग्रहण किया और सड़क पर सरपट दौड़ लगायी, बस पकड़नें की। हाँफते-हाँफते जान गले में अटक गयी किसी तरह दफ्तर पहुंचा । चपरासी ने बताया, सेक्शन बहुत गरम है, साहब के कमरे से चिल्लानें की आवाज़ आ रही थी, गुस्से से लाल-पीले हो रहे थे, बेल बजी तो जैसे डर सतानें लगा साहब मेरे क़रीब आ पहुँचे, तो रामलाल, ये है तुम्हारे आने का समय, वो...वो... सर जी कुछ मेहमान घर में आये हैं सो थोड़ी देर हो गयी । हर आदमी बहानें बनानें में निपुण है। हर दिन एक नया बहाना। साहब ने वही अपना घिसा-पीटा भाषण दिया और जाते-जाते कह गये आज की तुम्हारी तनख्वाह काट ली जायेगी और अपने केबिन में चले गये। हे भगवान! आज का दिन भी बेकार हो गया । मैं रोज़ ही सोचता हूँ , सुबह जल्दी उठ कर दफ्तर जाऊँगा लेकिन परिस्थितीयों का गुलाम, मानव रात को एक बजे से पहले नहीं सोता, तो सुबह क्या ख़ाक जल्दी उठेगा वो ख़ैर, जैसे-तैसे दिन बीता, घर पहुँचा और फिर टीवी देखा, गाने सुनें, अख़बार के पन्नों में झाँकना शुरू किया भोजन खाया गप-गप-गप, फिर पड़ोसी ने खिड़की से आवाज़ लगायी रामलाल आ जाओ, मानों मन माँगी मुराद मिल गयी हो आज पत्ते तुम पीसो, पत्ते खेलते-खेलते रात के दो बज गये अरे, बहुत रात हो गयी, सुबह फिर काम पर जाना है। शुभ रात्री। सुबह फिर पक्षीयों और भास्कर ने दस्तक दी, देर से उठा और भाग-दौड़ शुरू कर दी, ये दिनचर्या बन गयी है हमारी। ज़िन्दगी एक ऐसे साँचे में ढली है, जिसका कोई आकार नहीं, टेढी-मेढी ज़िन्दगी, पग-पग पर नोंक-झोंक, अभी बहुत से कार्य अनछुए और अधूरे हैं और ज़िन्दगी तितर-बितर, ताश के बावन पत्तों में उल्झी हुई, मानव गुलाम अपनी ख़राब आदतों का और दोष भगवान और दुसरों को फिर कहता है शायद मेरे भाग्य में यही लिखा है।

भोला बचपन



भोला बचपन

आज़ादी के बाद भी, इन्कलाब न हो सका,

हमारे बच्चों के वास्ते, एहतसाब न हो सका

मासूम भला क्या जानें, हयात की दुशवारियाँ,

कलम, दवात, किताब का, हिसाब न हो सका

एक मासूमियत ही, झलकती चेहरे पे,

किसी हरे-भरे चमन का, गुलाब न हो सका

ज़िन्दगी तीरगी में, क्या होगा हासिल,

अपने घर को रौशन करे, वो आफताब न हो सका

एक रद्दी चीज़ कोई, जैसे किसी घर की,

सड़क पर पड़ा संग, दुरे नायाब न हो सका

माना के ये वक़्त, बच्चों की मस्ती का,

बिना तालीम के कोई, कामयाब न हो सका

आज भी बरहनगी, देखी तंग गलियों में,

बदन ढकने का पूरा, खवाब न हो सका

मेरे मुल्क की तरक्की में, कई परेशानियां "रत्ती"

तालीम का बड़ा दायरा, दस्तयाब न हो सका

शब्दार्थ:

एहतसाब = प्रजा की रक्षा के लिये व्यवस्था करना, हयात = जीवन

दुशवारियाँ = कठिनाईयाँ, तीरगी = अन्धकार, आफ़ताब = सूर्य, संग = पत्थर

दुरे नायाब = अमूल्य मोती, तालीम = शिक्षा, बरहनगी = नग्नता,दस्तयाब = प्राप्त

Wednesday, May 6, 2009

इंतज़ार है



इंतज़ार है


चान्दनी ख़ुबसूरत, गले मोतियों का हार है

सज-धज के निकली, नयी-नयी बहार है


चमके माथे की बिंदिया, झूमें कानों के झुमके,

चेहरा भी खिला-खिला, सुन्दर सिंगार है


महक रहा है तन-बदन, नाज़ का निशाँ नहीं,

रोम-रोम से बरस रहा, प्यार ही प्यार है


दिल चीज़ है ऐसी, मचलने लगा वो,

तुम्हारे लिये, तेरे वास्ते, ये बेक़रार है,


हर तरफ हरियाली, लहराते बाग़ भी,

ये सबा, ये फज़ां, लगे ख़ुश-गवार है,


तेरा दिदार, हर लम्हा मिलता रहे,

"रत्ती" ऐसे वक़्त का, मुझे इंतज़ार है


Monday, May 4, 2009

अधमरा

अधमरा

मैं वो गुल हूँ
जो खिला भी और नहीं भी
ज़िन्दा भी और नहीं भी

जो भी आया
नोचनेंवाला, मरोड़नेवाला,

दिन-रात ज़हर घोलनेवाला,
दरियादिल, नेकदिल
इंसान मिला भी और नहीं भी

उसनें क़सम खायी

सितम ढाने की, मुझे डुबाने की
बहुत कोशिशें की, जिंदा लाश बनाने की
ख़ुदा का शुक्र है, कुछ हद तक

मैं मरा भी और नहीं भी

वादे ढेरों वादे

देखते-देखते, सुनते-सुनते
सपनो के जाल, बुनते-बुनते
वादा फक़त वादा ही रहा,
सपना पूरा हुआ भी और नहीं भी

तन्हा दिल बोल उठा

तन्हाई में मजबूरियों से
किया सलाह-मशविरा, बढ़ती दूरियों से
रातभर करवटें, मैं बदलता रहा
रतजगा सोया भी और नहीं भी

सब दिन ख़ौफ भरे

निवाला छिनने का डर
सहमा ही रहा ज़िन्दगी भर
गुमशुदा हिम्म्त की तलाश में,
बेदम "रत्ती" ज़मीं पे गिरा भी और नहीं भी

चुनाव


चुनाव

भारत के लोकतंत्र का, क्या करूँ बखान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान,
तुम हो महान नेताजी, तुम हो महान .....

मुँह उठाये फिर चले आये,
छुटभैये, चमचों से पर्चे बटवाये,
रंग-बिरंगे झण्डे फहराये,
इक्के-दुक्के काम गिनवाये,
मांग रहे हमसे मतदान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....

पुराने वादे न दोहराओ,
घिसे-पिटे भाषण न सुनाओ,
धर्म का ज़हर न फैलाओ,
पाँच साल का हिसाब बताओ,
कितने किये अच्छे काम,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....

भाजप, कांग्रेस, समाजवादी,
ओढे रहो भईया सफेद खादी,
हर काम की तुमको आज़ादी,
होती है होने दो बर्बादी,
इसका है किसी को अनुमान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....

सुस्त क़ानून व्यवस्था हमारी,
तिस पर महंगायी, बेरोजगारी,
सुरक्षा, शिक्षा की कमी भारी,
रिश्वत भी लाइलाज बिमारी,
पिस रही जनता हैं सब परेशान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान .....

फेल हो तुम चौथा दर्जा,
फिर भर दिया तुमने पर्चा,
कौन भरेगा चुनाव का खर्चा,
देश पर बढेगा भारी कर्जा,
ख़ूब रौशन किया भारत का नाम,
तुम हो महान नेताजी, तुम हो महान .....

कौन सुखी है बोलो आज,
एक सपना है रामराज,
राम भरोसे सब कामकाज,
खीझ है मन में, हैं सब नाराज़,
"रत्ती" बचाये सबको भगवान,
भारत के लोकतंत्र का, क्या करूँ बखान,
भोली जनता क्या करे, पल्ले पडे़ बेईमान,
तुम हो महान नेताजी, तुम हो महान .....

Sunday, April 26, 2009

चराग़


चराग़
वो जलते चराग़ बुझाता है,
दिन में उजाले को डराता है

अपनी ज़िन्दगी की परवाह नहीं,
मेरी सांसें रोज़ चुराता है

गै़रों को दोस्ती के पैग़ाम दिये,
क्यूँ मुझ से दूरियाँ बनाता है

शीशा-ए-दिल को खिलौना समझा,
हल्की सी चोट से टूट जाता है

किस मिट्टी का बना है संगदिल,
ख़ुद रोता नहीं मुझे रूलाता है

अजीब इत्तेफाक है मैं भूल भी जाऊँ,
"रत्ती" वो हर शब सपनों में आता है

Wednesday, March 11, 2009

होली


होली
अब तो मोहन तुम बिन, कुछ नहीं सुहाता,


होली ही नहीं कोई, उत्सव नहीं भाता,



आतंकी ख़ून की होली, रोज़ ही खेलें,


बेगुनाह लोगों की, जां ही ले लें,



सरकार मूक होकर, तमाशा देखती है,


हत्याओं पर लगाम लगे, ये न सोचती है,



बिगड़ा रईस अबला के साथ, होली मनाता है,


गंगा मैली होती रोज़, कोई न बचता है,



अब जीवन के सारे रंग, फिके लगते हैं,


नंगा बचपन, अंधी जवानी, लाचार बुढापा सिसकते हैं,



होली तो एक बहाना है, बस गुण्डा-गर्दी फैलाना है,


वासना है दिलों में, मक़सद भूख मिटाना है,



प्यार के लाल रंग, लुप्त होते जा रहे हैं,


शत्रुता के काले रंग ही, नज़र आ रहे हैं,



मोहन तुम्हारे संग, होली खेलना चाहता हूँ,


भक्ती और श्रद्धा के रंग में, डूबना चाहता हूँ,



पिचकारी में कृपा द्दृष्टी के , रंग भर के डारो,


"रत्ती" भक्ती का पक्का रंग, मुझ पे डारो

Wednesday, February 25, 2009

परिचित

परिचित
एक ढून्ढो हज़ार मिलते हैं,
दिल तोड़नें वाले सब यार मिलते हैं,
जानें क्या सुकून मिलता है उनको,
बड़े नसीब से वफादार मिलते हैं,

हमारा बोलना, हंसना, कुछ भी गवारा नहीं,

जानें किस मकसद से, मेरे पीछे चलते हैं,

बैर ही बसता है बस उनके दिलों में

मोहबत के अफसानें होठों पे लिये रहते हैं,

और पूछते हैं मिज़ाज, रोज़ ही हमसे,

सारे भेद लेके ही मेरे घर से निकलते हैं,

उनसे नज़रें चुराना, आदत सी बन गयी है,

कैसा इत्तेफाक़ है, वो हर मोड़ पे मिलते हैं,

माना के काँटे भी होते हैं, फूलों के चमन में,

"रत्ती" मासूम हो पतझड़ में कहाँ फूल खिलते हैं

Wednesday, January 28, 2009

आओ न


आओ न
आना है तो आओ न,
यूँ दिल को जलाओ न
छोटी किसी बात पर,
यूँ दिल को तड़पाओ न
हसरतों के तुफाँ में,
अकेला ये मुसाफिर
तन्हाई की आग़ोश में,
गुम हुआ आज फिर
क्या है दिल में साथी,
हमें कुछ बताओ न
छोटी किसी बात पर,
यूँ दिल को तड़पाओ न

तेरी ख़ामोशियां जैसे,
रूठी हो बहार भी
लब जो सिल गये,
कैसे बात हो प्यार की
आग जो लगी दिल में,
उसे और सुलगाओ न
छोटी किसी बात पर,
यूँ दिल को तड़पाओ न



Tuesday, January 27, 2009

शहीद




शहीद


शहीदों आपको कोटि-कोटि प्रणाम,
देश पे न्योछावर किए अपने प्राण

यूँ कोई किसी को फूटी कोडी न दे,
सब कुछ लुटा दिया तुम हो महान

सारे क़र्ज़ चुका देंगे हम किसी तरह,
आपके क़र्ज़ तले रहेगा हिदोस्तान

दुनिया की कोई दौलत या दवा भी,
जिंदा न कर पायेगी जो गुज़रा इंसान

देश भक्ती का जज्बा, हौसले बुलंद,
पास तुम्हारे बहुत था कीमती सामान

खो गया है वो बादलों की परछायी में,
रो रहा है आज हर छोटा-बड़ा इंसान

तुम ही तुम हो सीमाओं के रक्षक,
मार दिया दुश्मन को जो देखा अनजान

हमें फख्र है तुम्हारी शहादत का वीरों,
अफसोस भी बहुत बिछडी अनमोल जान

भारत माँ के सपूतों की बड़ी कुर्बानी,
ना भूलना "रत्ती" कभी वो महान इंसान


Thursday, January 1, 2009

नववर्ष


नववर्ष
नये साल का स्वागत, पुरानें को भूल जायें,

एक आशा की किरण से, फिर प्रेरणा पायें
अच्छी हों सच्ची हों, सबकी भावनायें,

नववर्ष की आपको, शुभकामनायें
नये साल की चुनोतियाँ , सवाल पूछेंगी,

जवाब तुम ढून्ढ लेना, अभ्यास खूब बढायें
पथरीली राहों में फूलों की, कामना ठीक नहीं,

राह मिलेगी उबड-खाबड, संभल-संभल के जायें
भ्रष्टाचार , आतंकवाद, दानव बडे-बडे,

इन ज़हरीले नागों के , फन पहले कटवायें
सहनशीलता , संयम के , हथियार पास हमारे,

विवेक से ही काम लें, उर्जा खूब बढायें
समयचक्र का पहिया, तेज़ दौड़नें वाला,

इसकी रफ्तार जितनी, "रत्ती" रफ्तार बनायें

दोस्ती

दोस्ती

तपते सेहरा को बरखा, ठण्डी बहार चाहिये,
हमको जहाँ की दौलत नहीं, आपका प्यार चाहिये

लुका-छिपी खेलने का, बहाना नहीं चलेगा,

इन आंखों को हरपल, आपका दीदार चाहिये

हमें मन्ज़ूर है कांटों से, दोस्ती भी दुश्मनी भी,

दिल आपका नाज़ूक फूल, वो खुशबूदार चाहिये

रंज के ही सबब से, राबते बिखरे सभी,

रिश्तों में मज़बूती, और ऐतबार चाहिये

बदचलन न हों कभी, वादे-इरादे किसी के,

गुफ्तगू होती रहे, दोतरफा इज़हार चाहिये

ख़ुश्क चेहरे मायूसी को, देते रहेंगे दावत,
हल्की सी मुस्कान, मीठा सा ख़ुमार चाहिये

मेहबूब की यादों का, ज़िक्र होता रहे सदा,

लगे इबादत कर ली, रूबरू परवरदिगार चाहिये

मज़मून तो बस एक, मोहब्बत का पैग़ाम,

बनी रहे दोस्ती "रत्ती", हमसफर यार चाहिये