Sunday, April 26, 2009

चराग़


चराग़
वो जलते चराग़ बुझाता है,
दिन में उजाले को डराता है

अपनी ज़िन्दगी की परवाह नहीं,
मेरी सांसें रोज़ चुराता है

गै़रों को दोस्ती के पैग़ाम दिये,
क्यूँ मुझ से दूरियाँ बनाता है

शीशा-ए-दिल को खिलौना समझा,
हल्की सी चोट से टूट जाता है

किस मिट्टी का बना है संगदिल,
ख़ुद रोता नहीं मुझे रूलाता है

अजीब इत्तेफाक है मैं भूल भी जाऊँ,
"रत्ती" वो हर शब सपनों में आता है