अहवाले बशर
ये नुक्स-ए-आबो-हवा देखी ज़माने में,
सदियां लग जाती लोगों को समझाने में
ये दौर-ए-गर्दिश है, इम्तहां लेता सबका,
हर शख्स मसरूफ नसीबा चमकाने में
यहां जुर्म को बेरोकटोक रक्स करते देखा,
इंसाफ को शर्म आयी रू- ब- रू आने में
कम लिबास में हूरें उड़ती हैं इन फ़ज़ाओं में,
नग्नता गली - गली में भलाई मुंह छिपाने में
अफ़साना - ए - फुरक़त न दोहराओ तुम,
बहोत मज़ा आता उनको सितम ढाने में
माज़ी की खता से माकूल कदम उठाये न,
तजुर्बा रायगां हयात के शामियाने में
"रत्ती" अहवाले बशर न पूछो तुम हमसे,
उलझा रहता रात-दिन दौलत कमाने में
शब्दार्थ
नुक्स-ए-आबो-हवा = दूषित जलवायु
मसरूफ = व्यस्त, रक्स = नृत्य
अफ़साना-ए-फुरक़त = विरह की कहानी
माज़ी = गुज़रा हुआ समय, माकूल = उचित,
रायगां = व्यर्थ, हयात = जीवन
अहवाले बशर = मानव का हाल
Wednesday, January 20, 2010
Tuesday, January 5, 2010
दहर
दहर
राह-ए-दहर में बातों के, फसानें थे बहोत
काली रातों में दिल में, अफ़साने थे बहोत
मेरी मौजूदगी में जो, कतराते रहते थे,
जाने के बाद होठों पे, तराने थे बहोत
हम ही अकेले न थे, जो उनपे मरते थे,
गली-गली, गाँव-गाँव, अनजाने थे बहोत
रात दिन घंटों उसका, इंतज़ार करते रहते,
उसकी इक झलक पाने के, दिवाने थे बहोत
उनसे रब्त क़रीब का, हैं वो दिल के पास,
रूठे एक दिन ऐसे जैसे, बेगाने थे बहोत
हर लम्हा ज़ीस्त का “रत्ती“, इम्तहान सा लगे,
नसीब को नये खेल, आज़माने थे बहोत
शब्दार्थ
राह-ए-दहर = जीवन की राह, रब्त = रिश्ता
राह-ए-दहर में बातों के, फसानें थे बहोत
काली रातों में दिल में, अफ़साने थे बहोत
मेरी मौजूदगी में जो, कतराते रहते थे,
जाने के बाद होठों पे, तराने थे बहोत
हम ही अकेले न थे, जो उनपे मरते थे,
गली-गली, गाँव-गाँव, अनजाने थे बहोत
रात दिन घंटों उसका, इंतज़ार करते रहते,
उसकी इक झलक पाने के, दिवाने थे बहोत
उनसे रब्त क़रीब का, हैं वो दिल के पास,
रूठे एक दिन ऐसे जैसे, बेगाने थे बहोत
हर लम्हा ज़ीस्त का “रत्ती“, इम्तहान सा लगे,
नसीब को नये खेल, आज़माने थे बहोत
शब्दार्थ
राह-ए-दहर = जीवन की राह, रब्त = रिश्ता
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