Wednesday, September 15, 2010

बदहाल

बदहाल


ग़मे  हिज्र   की  सूरते   हाल  न   पूछ,
हुआ दिल को कितना मलाल न पूछ

शब   भर  वहाँ  बसी थी  खामोशियाँ,
सहर  हुई  मचा   नया बवाल  न पूछ

आज़ाद   लोगों  के   वास्ते    रोज़  ही,
बुना   बेबसी  ने   एक   जाल  न  पूछ

तू  एक  गुलाम   है   चुप   ही    रहना,
सर  झुका  कर काम   सवाल न पूछ

बिना  खता  के भी  तुझे   सज़ा   देंगे,
तेरे जिस्म पे  न  होंगे  बाल  न   पूछ

सर्द  आहों  में  सुलगे  हैं  जो   अरमां,
दिल  की  तरंगों  का  उबाल  न   पूछ

इब्तिदा   और   इंतिहा   में   फसा  है,
''रत्ती''  दीदा-ए-तर  बदहाल  न  पूछ 

Wednesday, September 8, 2010

ख़ुद को बचाया जाये

ख़ुद को बचाया जाये


चलो आसमां को ज़मीं पे लाया जाये,
चांद-तारों से दिल को बहलाया जाये

रातों की ज़ुल्मतों  में ग़मों को ढून्ढें,
दिन के उजाले में दर्द पाला जाये

कांटों की डोली में बैठ के फिर सोचो,
कैसे ज़ख्मों को ज़्यादा उभारा जाये

लहरों के सीने, जिस्म पे नाचते खेलते,
उनके सोये तुफानों को जगाया जाये

सूरज की गर्मी और उठती लपटें पी के,
पेट की बढती आग को मिटाया जाये

इंसां तो जनम से लापरवाही का हबीब,
उसे सलीके से ही सब सिखाया जाये

''रत्ती'' ये सब मुमकीन नहीं होता कभी,
सदा खतरों से खुद को बचाया जाये