"दीपावली"
आओ सखियों सब मिल के रंगोली बनाओ री,
अयोध्या नगरी को दुल्हन की तरह सजाओ री
रामचन्द्र के आगमन पर कोई त्रुटी न रहे,
सुगन्धित पुष्पों की माला उनको पहनाओ री
हर गली को रंग-बिरंगे फूलों से सजाना,
रामचंद्र जब चले यहाँ से पुष्प उन पर बरसाओ री
मिष्ठान, पकवान हर तरह के ध्यान से बनाना,
छप्पन भोग, स्वादिष्ट भोजन का भोग लगाओ री
तन-मन-धन से पूजा, अर्चना का ही हो लक्ष्य,
भजन, मंगल आरती, प्रेम सहित गाओ री
राम प्रसन्न तो सब प्रसन्न, तैतीस करोड़ देवी-देव,
रामपद पूजा में मन को निरंतर लगाओ री
लक्ष्मी जी भी प्रसन्न होती राम के गुणगान से,
चिंतन के दीप अंतर्मन में सदा जलाओ री
जय- जयकार करो उत्साह से, बहुत प्यार से,
ह्रदय से पुकारो राम जी को और रिझाओ री
दीप जलाओ भक्ति के, आस्था और श्रद्धा भरे,
इस नियम को पक्का कर जीवन सफल बनाओ री
Saturday, November 6, 2010
Monday, November 1, 2010
शोला रू
शोला रू
फरिश्ते भी खुल्द से ज़मीं पर नहीं आते,
भूल के भी अपना पता नहीं हमें बताते
बहरे जहाँ बरहम शोला रू नज़र आया,
ऐसी रवायत है यहाँ अश्कों को सजाते
लोग किसी को दिल के क़रीब नहीं लाते,
और राज़ अपना कभी नहीं बताते
फर्द बेसाख़्ता सरसीमगी को पालता,
लज़्ज़तफशां खु़बसूरत चीज़ों को ठुकराते
जाबजा गुनाहगार को आज़ादी है,
गुनाह किसी का देख के नहीं समझाते
ज़रा सी भी शफ़क़त नहीं किसी के दिल में,
रंज - ओ - मेहन को ही चार सू फैलाते
इन्सां कारदां है मगर गुमां करता हैं,
मासूम फरर्माबरदार को बहुत डराते
तंग-नज़र, पासदारी की बुनियाद पर बैठे,
पसोपेश में ख़ुद को नहीं लोगों को फसाते
आसेब हैं यहाँ सारे के सारे “रत्ती“,
एक सदाक़त को सात पर्दों में छिपाते
शब्दार्थ
खुल्द = स्वर्ग, बहरे जहाँ = विश्व सागर, बरहम = नाराज़,
शोला रू = आग जैसे चेहरे, फर्द = आदमी, बेसाख़्ता = अनायास,
सरसीमगी = परेशानी, लज़्ज़तफशां = मज़ा देने वाली, जाबजा = जगह-जगह
शफ़क़त = स्नेह, रंज-ओ-मेहन = दुख-दर्द, चार सू = चारों तरफ,
कारदां = अनुभवी, गुमां = शक, संशय, फरर्माबरदार = सेवा करनेवाला,
तंग-नज़र = संकीर्ण विचार, पासदारी = पक्षपात, आसेब = भूतप्रेत, सदाक़त = सच्चाई
फरिश्ते भी खुल्द से ज़मीं पर नहीं आते,
भूल के भी अपना पता नहीं हमें बताते
बहरे जहाँ बरहम शोला रू नज़र आया,
ऐसी रवायत है यहाँ अश्कों को सजाते
लोग किसी को दिल के क़रीब नहीं लाते,
और राज़ अपना कभी नहीं बताते
फर्द बेसाख़्ता सरसीमगी को पालता,
लज़्ज़तफशां खु़बसूरत चीज़ों को ठुकराते
जाबजा गुनाहगार को आज़ादी है,
गुनाह किसी का देख के नहीं समझाते
ज़रा सी भी शफ़क़त नहीं किसी के दिल में,
रंज - ओ - मेहन को ही चार सू फैलाते
इन्सां कारदां है मगर गुमां करता हैं,
मासूम फरर्माबरदार को बहुत डराते
तंग-नज़र, पासदारी की बुनियाद पर बैठे,
पसोपेश में ख़ुद को नहीं लोगों को फसाते
आसेब हैं यहाँ सारे के सारे “रत्ती“,
एक सदाक़त को सात पर्दों में छिपाते
शब्दार्थ
खुल्द = स्वर्ग, बहरे जहाँ = विश्व सागर, बरहम = नाराज़,
शोला रू = आग जैसे चेहरे, फर्द = आदमी, बेसाख़्ता = अनायास,
सरसीमगी = परेशानी, लज़्ज़तफशां = मज़ा देने वाली, जाबजा = जगह-जगह
शफ़क़त = स्नेह, रंज-ओ-मेहन = दुख-दर्द, चार सू = चारों तरफ,
कारदां = अनुभवी, गुमां = शक, संशय, फरर्माबरदार = सेवा करनेवाला,
तंग-नज़र = संकीर्ण विचार, पासदारी = पक्षपात, आसेब = भूतप्रेत, सदाक़त = सच्चाई
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