Tuesday, October 1, 2013

ग़ज़ल - १२

 
 ग़ज़ल - १२


कभी मशहूर था इक नाम था गुमनाम से पहले .
जिसे सर    पे बिठाते पूछते नाकाम से पहले



क़सक रह रह के तड़पती रही इस जान को दिन भर,
न आया संगदिल माही मेरा वो शाम से पहले



जली गहरी बुझी यादों से शिकवा न गिला कोई,
गुज़र ही जायेगी ये ज़िन्दगी फ़रज़ाम* से पहले



ख़ता जो हो गयी तो हो गयी बस में नहीं क्या ये ?
ज़रा तुम सोच लेते इक दफ़ा अंजाम से पहले



न मयखाना रहा ना महकती यादें सनम तेरी,
ज़रा लुत्फ़ मिलेगा हमको पूछो जाम से पहले



खुली पलकों तले ढूंढे ज़रा सी छाँव जब "रत्ती"
सितम ढाये ज़माने ने मगर हर काम से पहले



फ़रज़ाम = नतीजा, परिणाम, अंत

1222/1222/1222/1222

Tuesday, September 17, 2013

ग़ज़ल - ११

ग़ज़ल - ११
बदनाम करते लोग कहें सच्चे यार हैं।
हम आपके लिए करते जां निसार हैं।।
दामन लगे हैं दाग धुलेंगे न अश्क़ से,
दौलत सवाब की कम है इन्तिशार हैं।
अरमान पालना दुश्वारी से कम नहीं,
फिर भी तलब नशा इतना हम शिकार हैं।
वो खौफ़ दर्द थामे खड़े तकते चार सू,
ऐसे हबीब ज़ख्म देंगे नागवार हैं।
ये वलवले बड़ी उम्मीदों भरे लगे,
हलके वरक महज़ लगते इश्तहार हैं।
शीशा कहे रहम करो तन्हा मुझे रखो,
फितरत है टूटना ग़म भी बेशुमार हैं।
चिंगारियां छुपी थी दबे पाँव आ गयी,
जलता रहा बदन हवाएं साज़गार हैं।
मुडती गली सुहावने मंज़र दिखायेगी,
"रत्ती" किसे खबर तपते आबशार हैं।
शब्दार्थ
सवाब = पुण्य, इन्तिशार = परेशान,
चार सू = चारों तरफ, हबीब = मित्र,
नागवार = अप्रिय, वलवले = उमंग,
वरक = पन्ने, साज़गार = अनुकूल,
आबशार = झरना

Monday, September 2, 2013

दीवाना

दीवाना
क़ातिल तेरी निगाहें हर बात शायराना
तूने सोच बनायी ऐसी बस सितम ढाना
मेरे सोज़ दिल का कोई तो होगा मदावा
दर्द तुमने दिया है दावा भी तुम बताना
नज़रों की न पूछो क़यामत हैं क़यामत
मैं भी हूँ परेशां और सारा ये ज़माना
इक तेरी आरज़ू और मखमली जुस्तजू
गुज़ारूँ वहीँ ज़िन्दगी जहाँ तेरा आशियाना
मैं क़दमों को रोक लूँगा अनजानी राहों से
फकत एक बार बता अपना ठिकाना
तलबगार हूँ तलब ये मेरी दीदार हो जाये
"रत्ती" कोई कहे मजनू कोई बोले दीवाना
 
 

Monday, June 24, 2013

जी बहलाना है

जी बहलाना है

सुर्ख होठों पे अंगारों को सजाना है,
ये चलन पुराना पर नया ज़माना है

सियाह रात कुछ तो सितम ढायेगी,
सुबह के वास्ते चुटकी नूर बचाना है

अश्कों को गिरने से कौन रोके अब,
सँभालते-सँभालते फिर बह जाना है

तन्हाइयो को ग़म-ओ-दर्द से क्या वास्ता,
दीवारों से कहना खुद को सुनाना है

बेकद्री के दौर में सिले होंठ बेबस,
बिगड़े हालत से नया रास्ता बनाना है

हयात पिला रही कडवी दवा के जाम,
मैखाने में वो बात नहीं लहू को सुखाना है

मेरी सुनहरी यादों को सानिहा न बनाओ
मकतल-ए-हयात में सरमाया बचाना है

अफ़साने भी लाख भरे हैं ज़हन में,
"रत्ती" सोच-सोच के जी को बहलाना है 

 

Thursday, May 9, 2013

ग़ज़ल - १०

ग़ज़ल - १० 

लम्हे के गिरेबां से इक सांस चुरानी है 
इस वक़्त के चंगुल से जां सबको बचानी है 

कोई किस का दामन पकडे कब तक हर दिन 
हर दिल बिखरा टूटा सबको परेशानी है 

उनवान बदल जायेगा जीवन का तेरा 
परवाज़ सुबह की अच्छी शाम दिवानी है 

दो ख़ाब मिटे दस ने दी दस्तक हम को फिर 
कैसा रिश्ता इनका कितनी मनमानी है 

जुमले अब अंगारे की शक्ल में बरसे हैं 
जलते-बुझते दिल आँखों से गिरे पानी है 

नस-नस कहती करे-दुश्वार है शफ़क़त 
मोहब्बत में  हर शै अब रोज़ लुटानी है 

अब रंग लहू का कैसे लाल से नीला हो 
ना मुमकिन को मुमकिन शै कह के बतानी है 

"रत्ती" न हिमायत कर ना खुशफ़हमी ले आ 
हालत दिल की नाज़ुक राह भी तुफानी है 

शब्दार्थ 
करे-दुश्वार - कठिन काम 
शफ़क़त - स्नेह 

अहमक़

अहमक़ 

क्या सोचता है तू 
दूसरों के किरदार के बारे में 
धोखेबाज़ हैं,  खुदगरज़ हैं वो 
खुदसिताई में जीने वाले 
कभी भूले से ही 
अपने गिरेबां को देख ले 
तो मालूम होगा तुझे 
सरे आलम में 
तू सबसे बड़ा अहमक़ है .....

Tuesday, February 19, 2013

कशमकश

कशमकश
 
ये ज़ालिम बेकसी क़दम खींचती है
 
न जाने कहाँ से नये घर ढूंढती है
 
मेरा बस चले तो दूर ही रहूँ उम्रभर
 
दिलोदिमाग पे छाई पहरेदार घूमती है   
 
 
रफ्ता-रफ्ता वक़्त ने कसे हैं शिकंजे
 
ग़मो से घिरा आदमी भला कैसे हँसे
 
रह-रह के अब तो सांस भी फूलती है
 
 
ज़माने ने भी चुनी अपनी सोची डगर
 
काम करने से पहले करे वो अगर-मगर
 
कशमकश में ज़िन्दगी नहीं झूमती है
 
 
 
जलती हुई शम्मा के बुझने से पहले
 
टूटे-फूटे जुमलों में दुनियां से कह ले
 
"रत्ती" छीनो न आज़ादी रूह झूलती है
 
 

Tuesday, February 12, 2013

नज़दीकियाँ

नज़दीकियाँ
 
दूरियों से नहीं साहेब, नजदीकियों से डर लगता है
अपने दिल के तहखाने में, वो मेरे राज़ रखता है
 
सियासी चालों की आग, हरदम सुलगती रहती है
मैं अनजान क्या जानूं, ये सब वो क्यूँ करता है
 
राम की बातें करने वाले, रावण के पक्के दोस्त,
दूसरों को दुःख देकर, उनको सुख मिलता है
 
प्यार, वफ़ा, तहज़ीब से, कुछ लेना देना नहीं
मुहोब्बत के दावे अक्सर, वो रोज़ ही करता है
 
रु-ब-रु लगता है जैसे, अज़ीम हो शख्सीयत
वार खंजर का पीठ में, बड़े जोर से करता है
 
आसमान सर पे उठाने की, हिमाकत करना आदत
हमारा सूरज पूरब से, उनका पश्चिम से निकलता है
 
सौ खून करने हैं मुझे, आज दिन भर में,
"रत्ती" ये क़सम खा के, वो घर से निकलता है

Friday, January 18, 2013

"पडोसी"


दोस्तों, भारत पाक सीमा पर जो  हो रहा है, वो बड़ा ही दुखद है, हमारे जवानों के सर को कलम कर दिया गया,

इस बात से हर हिंदुस्तानी के दिल को चोट लगी है, एक छोटी सी रचना पेश कर रहा हूँ शीर्षक है "पडोसी"

"पडोसी"

 

मेरे शहर की गावों से अब नहीं बनती

बिलावजह जाने क्यूँ भोहें हैं तनती

 

गली-गली में अमन की बात करते हैं,

फिर अचानक तलवारें हवाओं में चमकी

 

मुल्कों, मजहबों, जातियों में बटे दिल,

दो सगे भाइयों में भी अब नहीं बनती

 

फिर लहू बहेगा ज़मीं पे बेगुनाहों का,

सरहद पार से रही है रोज़ धमकी   

 

सर कलम करके क्या होगा हासिल,

डर ख़ुदा का खौफ़ किये जाओ मन की

 

पडोसी नज़रें तरेरता बेलगाम हुआ,

पल में तोला, पल मैं माशा, बड़ा है सनकी

 

हुक्मरां, ख़ामोश, तमाशबीं बन बैठे,

अवाम बेज़ार ख़ुदा लाज रखे वतन की

 

जानवरों से भी बदतर बशर का चलन,

"रत्ती" फ़िक्र हयात की और तन की

Monday, January 14, 2013

गीत - 4

गीत - 4
साये पूछते हैं हमें रात में
क्या खता हुई थी मुलाकात में
रुसवाई की मैं सोच नहीं सकता
आपका हाथ थामा है हाथ में
साये पूछते हैं हमें रात में,,,,,
गुलाबी रुत की बेरुखी और ताने
बोलो कहाँ जाये अब तेरे दिवाने
सबा भी जैसे मुंह फेरती हो
ज़रा मज़ा नहीं इस बरसात में
साये पूछते हैं हमें रात में,,,,,
उन दीवारों के कान बड़े पतले
दिल मचले तो भला कैसे मचले
पानी भी जो फूंक के पीना पड़े
इक बेकसी बची है हयात में
साये पूछते हैं हमें रात में,,,,,
हर लम्हे की अजब कहानी
रु-ब-रु होती रहती हैरानी
दिल न बहलायेंगे ऐसे मंज़र
ग़म दस्तक दे इन हालात में
साये पूछते हैं हमें रात में,,,,,

Thursday, January 3, 2013

गीत - 3

गीत - 3

आँखों से दिखता नहीं, बाहर का उजाला 
अंदर की दुनियां का, खेल है निराला 

सपने भी पलते यहाँ, अरमान तड़पते हैं 
आहें कराहती हैं, और दर्द भी हंसते हैं
गला निगलता नहीं, मुंह का निवाला    
आँखों से दिखता नहीं, बाहर का उजाला .....

नये-नये ज़ख्म मिले, लिपटे रहे जान से
आशियाँ ये ताउम्र का, रहो इसमे शान से
ऐसे में याद आ गया, वो पर्वत का शिवाला     
आँखों से दिखता नहीं, बाहर का उजाला .....

टूटे के बिखरा तन, डर के ले अंगडाईयां 
रात में आ गयी, मेरे हिस्से तन्हाइयां  
ये सुबह तीरगी भरी, चेहरा इसका काला 
आँखों से दिखता नहीं, बाहर का उजाला .....