Tuesday, February 19, 2013

कशमकश

कशमकश
 
ये ज़ालिम बेकसी क़दम खींचती है
 
न जाने कहाँ से नये घर ढूंढती है
 
मेरा बस चले तो दूर ही रहूँ उम्रभर
 
दिलोदिमाग पे छाई पहरेदार घूमती है   
 
 
रफ्ता-रफ्ता वक़्त ने कसे हैं शिकंजे
 
ग़मो से घिरा आदमी भला कैसे हँसे
 
रह-रह के अब तो सांस भी फूलती है
 
 
ज़माने ने भी चुनी अपनी सोची डगर
 
काम करने से पहले करे वो अगर-मगर
 
कशमकश में ज़िन्दगी नहीं झूमती है
 
 
 
जलती हुई शम्मा के बुझने से पहले
 
टूटे-फूटे जुमलों में दुनियां से कह ले
 
"रत्ती" छीनो न आज़ादी रूह झूलती है
 
 

Tuesday, February 12, 2013

नज़दीकियाँ

नज़दीकियाँ
 
दूरियों से नहीं साहेब, नजदीकियों से डर लगता है
अपने दिल के तहखाने में, वो मेरे राज़ रखता है
 
सियासी चालों की आग, हरदम सुलगती रहती है
मैं अनजान क्या जानूं, ये सब वो क्यूँ करता है
 
राम की बातें करने वाले, रावण के पक्के दोस्त,
दूसरों को दुःख देकर, उनको सुख मिलता है
 
प्यार, वफ़ा, तहज़ीब से, कुछ लेना देना नहीं
मुहोब्बत के दावे अक्सर, वो रोज़ ही करता है
 
रु-ब-रु लगता है जैसे, अज़ीम हो शख्सीयत
वार खंजर का पीठ में, बड़े जोर से करता है
 
आसमान सर पे उठाने की, हिमाकत करना आदत
हमारा सूरज पूरब से, उनका पश्चिम से निकलता है
 
सौ खून करने हैं मुझे, आज दिन भर में,
"रत्ती" ये क़सम खा के, वो घर से निकलता है