ग़ज़ल - १०
लम्हे के गिरेबां से इक सांस चुरानी है
इस वक़्त के चंगुल से जां सबको बचानी है
कोई किस का दामन पकडे कब तक हर दिन
हर दिल बिखरा टूटा सबको परेशानी है
उनवान बदल जायेगा जीवन का तेरा
परवाज़ सुबह की अच्छी शाम दिवानी है
दो ख़ाब मिटे दस ने दी दस्तक हम को फिर
कैसा रिश्ता इनका कितनी मनमानी है
जुमले अब अंगारे की शक्ल में बरसे हैं
जलते-बुझते दिल आँखों से गिरे पानी है
नस-नस कहती करे-दुश्वार है शफ़क़त
मोहब्बत में हर शै अब रोज़ लुटानी है
अब रंग लहू का कैसे लाल से नीला हो
ना मुमकिन को मुमकिन शै कह के बतानी है
"रत्ती" न हिमायत कर ना खुशफ़हमी ले आ
हालत दिल की नाज़ुक राह भी तुफानी है
शब्दार्थ
करे-दुश्वार - कठिन काम
शफ़क़त - स्नेह