Friday, February 28, 2014

ग़ज़ल - १३

ग़ज़ल - १३

 
बात झूठी भी खरी होने लगी।
वो कहावत अब सही होने लगी।।


रास्ते ये प्यार के, मंज़िल हसीं,
उनसे मुझको दिल्लगी होने लगी।

 
ख्वाहिशें उस चाँद की बढ़ने लगीं,
तू-तू मैं-मैं रोज़ ही होने लगी।
 
रात सारी गुफ़तगू में थी मगर,
सुब्ह चुप-चुप थी, दुखी होने लगी।

 
जगमगाये, झिलमिलाये ख़ाब जो,
चाहतें उनकी बड़ी होने लगी।

 
ज़ख्म खुद ही भर गये, देखा उसे,
आज हमको फिर ख़ुशी होने लगी।

 
है चरागों के बगल में रौशनी,
दूर सारी बेबसी होने लगी।

 
वो खुदा थे, रहनुमां भी, चल दिये,
उनके जाने से कमी होने लगी।


इश्क़ को तुम रोग "रत्ती" मान लो,
एक पल में आशिक़ी होने लगी।

Saturday, February 1, 2014

सियासत

सियासत 

खामोश रहने की हिदायत 
देते सब हालात 
कहा गिरवी रख छोड़े हमने 
अच्छे वो ख्यालात 

मन मुआफ़िक़ हर काम करें 
मतलब से करे वो बात 
हर बात धुएं में उड़ाते 
कब मिलेगी निजात 

आज़ादी की परवाज़ काश 
पहले सी फिर होती 
तार दिलों के जुड़े रहते 
प्यार से करते बात 

दिल के सफ़ेद पन्नो पर 
बिखरी काली सियाही 
दिखते नहीं दर्द किसी के 
ज़ख्मों पे करे आघात 

हम आज़ाद परिंदों के 
पर कुतर डाले 
सियासत खा गयी सबको 
बाद से बदतर हालात

महंगाई के ये जलज़ले 
रोज़ तोहफे में आते 
टुकड़े टुकड़े अवाम के 
बची न कोई जमात 

शिद्दत से उछले थे मुद्दे 
उम्मीद लिए अरमान से 
रहनुमाई करनेवाला पूछे 
सवालात पे सवालात 

अच्छी लगती नहीं ज़ंजीरें 
न पिंजरे के तोते हम 
ज़ुल्म न करो हम पे 
न मारो घुसे लात 

एक एक दर्द उसे बताया 
सुनी-अनसुनी हो गयी 
क़ुरबानी के बकरे की 
हयात काली रात 

आज़ादी बनी "रत्ती" का सपना 
शायद कोई मिले अपना 
आस की प्यास रहेगी मन में 
जाने कब होगी मुलाक़ात